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प्र म॑न्महे शवसा॒नाय॑ शू॒षमा॑ङ्गू॒षं गिर्व॑णसेऽअङ्गिर॒स्वत्। सु॒वृ॒क्तिभिः॑ स्तुव॒तऽऋ॑ग्मि॒यायार्चा॑मा॒र्कं नरे॒ विश्रु॑ताय ॥१६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। म॒न्म॒हे॒। श॒व॒सा॒नाय॑। शू॒षम्। आ॒ङ्गू॒षम्। गिर्व॑णसे। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् ॥ सु॒वृ॒क्तिभि॒रिति॑ सुवृ॒क्तिऽभिः॑ स्तु॒व॒ते। ऋ॑ग्मियाय॑। अर्चा॑म। अ॒र्कम्। नरे॑। विश्रु॑ता॒येति॒ विऽश्रु॑ताय ॥१६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को विद्या और धर्म बढ़ाने चाहियें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (सुवृक्तिभिः) निर्दोष क्रियाओं से (शवसानाय) विज्ञान के अर्थ (गिर्वणसे) सुशिक्षित वाणियों से युक्त (ऋग्मियाय) ऋचाओं को पढ़नेवाले (विश्रुताय) विशेष कर जिसमें गुण सुने जावें (स्तुवते) शास्त्र के अभिप्रायों को कहने (नरे) नायक मनुष्य के लिये (अङ्गिरस्वत्) प्राण के तुल्य (आङ्गूषम्) विद्याशास्त्र के बोधरूप (शूषम्) बल को (प्र, मन्महे) चाहते हैं और इस (अर्कम्) पूजनीय पुरुष का (अर्चाम) सत्कार करें, वैसे इस विद्वान् के प्रति तुम लोग भी वर्त्तो ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि सत्कार के योग्य का सत्कार और निरादर के योग्य का निरादर करके विद्या और धर्म को निरन्तर बढ़ाया करें ॥१६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैर्विद्याधर्मौ वर्द्धनीयावित्याह ॥

अन्वय:

(प्र) (मन्महे) याचामहे। मन्मह इति याञ्चाकर्मा ॥ (निघं०३.१९) (शवसानाय) विज्ञानाय (शूषम्) बलम् (आङ्गूषम्) विद्याशास्त्रबोधम्। आङ्गूष इति पदनामसु पठितम् ॥ (निघं०४.२) (गिर्वणसे) गिरः सुशिक्षिता वाचो वनन्ति संभजन्ति वा तस्मै (अङ्गिरस्वत्) प्राणवत् (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु वृजते दोषान् यासु क्रियासु ताभिः (स्तुवते) यः शास्त्रार्थान् स्तौति (ऋग्मियाय) यो ऋचो मिनोत्यधीते तस्मै (अर्चाम) सत्कुर्याम (अर्कम्) अर्चनीयम् (नरे) नायकाय (विश्रुताय) विशेषेण श्रुता गुणा यस्मिंस्तस्मै ॥१६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा वयं सुवृक्तिभिः शवसानाय गिर्वणस ऋग्मियाय विश्रुताय स्तुवते नरेऽङ्गिरस्वदाङ्गूषं शूषं प्रमन्मह एवमर्कमर्चाम। तथैतं प्रति यूयमपि वर्त्तध्वम् ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैः सत्करणीयस्य सत्कारं निरादरणीस्य निरादरं कृत्वा विद्याधर्मौ सततं वर्द्धनीयौ ॥१६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचक व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे लोक सत्कार करण्यायोग्य असतील त्यांचा आदर सत्कार करा व जे लोक निरादर करण्यायोग्य असतील त्यांचा निरादर करून माणसांनी विद्या व धर्म सतत वाढवावा.